Sunday, May 30, 2010

मेरी तलाश की ज़ंजीर में

मेरी तलाश की ज़ंजीर में
एक और कड़ी हो तुम
क्या मालूम तुम आखिरी हो ?
तेरे जुल्फों की घनघोर घटाओं
के पीछे छिपा है एक चाँद
चंचल शोख से चेहर के पीछे
छुपी एक शांत भोली भाली हिरणी हो तुम
चश्मे के पीछे छिपे दो नैनो में झाँकने
की कोशिश में
बार बार याद किया है मैंने
तुम्हारा बाय मधुरेश...
और तुम भी आना कहना

ब्रहमपुत्र के किनारे
कामख्या की गोद में
रात की गहराइयों में बार बार
खनकती तुम्हारी हँसी ने
जैसे चुपके से आकर जगाया हो मुझे
kandisa के गाने पर झूमती तुम्हारी जुल्फों
ने जीता था मेरा मन
पर मदमस्त चंचल अदाओं में कहीं
छुपी थी एक उदासी की रेखा
और किसी का डर
जानकर मैंने गया था हिले ले झकझोर दुनिया
और टूट गए थे सारे सपने

- मधुरेश, २८ दिसम्बर, २००० गुवाहाटी, ईद उल फ़ित्र के दिन

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