बंद पलकों के पीछे छिपे दो नयन
कुछ हलकी शाम की गहराई लिए
मानो कर रही थी किसी का इंतज़ार
सामने बैठी सभी की निगाहे
तलाश रही थी तुम्हारे चेहरे को
और आस पास से बिलकुल बेखबर
न जाने कहाँ खोई थी तुम
तुम्हारे बगल में बैठा
बेताब था मै, तुम्हे जानने को, पाने को
क्योंकि मुझे भी तलाश है किसी की
लगा मंजिल के पास बैठा हूँ
पर ज्यों ही कदम बढ़ाये थे लपकने को
तुम उठकर चल पड़ी थी
शायद अपने इंतज़ार से उब कर
- मधुरेश, अगस्त 2000
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